Tuesday, January 19, 2016

धर्मों के पुल... परेश रावल

आज जहाँ हर एक पेशा ब्यवसायिक  बन गया है,आप चाहे डॉक्टरी लें ,वकालत लें ,नेतागीरी और तो और धर्म के नाम  चलती बाबागिरी सब ब्यवसाय । इनमे से 100 में से 10 सही भी हैं ,जो अपना काम लगातार शांति और ईमानदारी से करते चले जा रहे हैं ,जिनका काम अपने पेशे के साथ  न्याय करना है । 
गूगल फोटोज से 


मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूँ ,जिन्ही मैं कभी मिला तो नहीं पर उन्होंने अपने पेशे के द्वारा लोगों में एक शांति सन्देश और आपसी प्रेम देने की कोशिश की,धर्मों में फैली बिमारियों के बीच वो एक डॉक्टर जैसे हैं,परेश रावल जी । 



अपने फिल्म - ओह माई गॉड में ,   जहाँ उन्होंने हिंदू धर्म ब्याप्त आडम्बरों का विरोध किया और इंशानियत के धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए ,स्वबुद्धि के सामर्थ्य से कार्य करने की सलाह दी । 







तो वहीँ उन्होंने धरम संकट में हिन्दू और मुस्लिम धर्म के उद्देस्य में समानता दिखाने की कोशिश की 
मुस्लिम भाइयों में कौमी एकता की सोच को सही दिशा देने की कोशिश करते हुए ,कौम के नाम पर होने वाले दंगे,फषाद को रोकने की कोशिश करते हुए,मुस्लिम का रोल करते एक महान फिल्म-रोड टू संगम में भी अपना दम दिखाया है । 

मैं पोस्ट पढ़ने वालों से कहना चाहता हूँ,ये फिल्मे जरूर देखें । 

Saturday, January 16, 2016

दुनिया गोल है...

दुनिया गोल है,कहीं रात शुरू होती है तो कहीं यही रात ख़त्म होकर सबेरा लाती होती है । 
कुछ सालों पहले की बात है ,मैं पासपोर्ट ऑफिस रायपुर गया हुआ था। अंदर वेटिंग में बैठा था,वहीं एक फैमिली भी वेटिंग में थी। जिनमे मेरी ही उम्र के लगभग के एक भाई भी थे,हममे बातचीत चालू हुयी ,तब उन्होंने बताया कि उनकी पूरी फैमिली USA जा रही है। अब वो वहीँ रहेंगे जॉब भी मिल गया है,पापा को भी मुझे भी। फ़िलहाल  बिलासपुर में रहते है,वैसे रहने वाले गुज़रात के हैं। 
मैंने भी अपने बारे रुचित भाई को बताया,1 -2 घंटे की मुलाकात में हम दोस्त बन गए थे । घर पहुँचने पर मैंने बातो हि बातो में ये बात निकाली ,मेरा छोटा भाई भी था,उसने पूछा क्या नाम बताया,मैंने कहा रुचित पटेल,भाई बोला कि ये तो मेरे ही कॉलेज में था । फेसबुक पर मैंने रुचित भाई को बताया,मेरा भाई भी आपके साथ पढ़ा है,तब हमारी और पहचान होते गयी। अब फेसबुक पर कभी कभी उनसे बात होती रहती थी । मैं भी अब यूक्रेन आ गया था ,अभी परसों ही रुचित भाई का मैसेज आया,बोले कब फ्री हो वीडियो चैट करते हैं । मैंने भी कहा फ्री ही हैं ,आप जब बोलो फिर लैपटॉप खोल कर शुरू हो गए,मैंने रुचित भाई से परिवार के बारे में पूछा ,बातें हो रही थी रुचित भाई ने गर्ल फ्रेंड के बारे में जिज्ञासा से पूछना चाहा,मैंने भी उनको मनोवैज्ञानिक तरीके से झूट बोल दिया कि हम तो यहाँ कइयों को घुमा रहे हैं । रुचित भाई ने पूछा क्या टाइम हो रहा है वहां मैंने बोला यहाँ शाम के 6 बज (यूरोपियन टाइम) रहे हैं। वो हँसते हुए बताते हैं,यहाँ सुबह के 10 बज रहे हैं,और कुछ देर बाद जॉब और कॉलेज का टाइम हो जायेगा,तैयार होने वाले हैं ,मुझे वहां भारतीय लोग और खाने के बारे में पूछना था ,तो पूछ लिया रुचित भाई ने बताया ,यहाँ बहुत भारतीय हैं ,सारे जरुरत की इंडियन चीजें मिल जाती है । आधे घंटे तक बात हुयी,फिर मुझे घर भी फोन करना था ,रोज़ घर पर बात न करो तो अच्छा नहीं लगता,मुझे भी और घर वालों को भी ,तो मैंने रुचित भाई को बाय बाय कहा । पर मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि जहाँ यहाँ रात होने वाली थी , तो वहां दिन की शुरुवात हो रही थी । 

Thursday, January 14, 2016

खास दिन,और ब्लॉगोदय के सांथ मेरा उदय ..

आज का दिन बड़ा खास रहा ,बीती  रात में जब श्री ललित शर्मा जी का ब्लॉग पढ़ रहा था,तभी उनके ब्लॉग से ब्लॉगोदय के लिंक पर चला गया। ब्लॉगोदय 500 से भी अधिक ब्लॉगर्स का संकलन है। मन तो कर रहा था,काश मेरा भी ब्लॉग इसमें आ जाता,पर मैं सोचने लगा कि मैंने तो अभी ही ब्लॉग लिखना शुरू किया है । एक भी पेज विजिट नहीं हुआ है , कैसे कोई मुझे जोड़ेगा। तभी मैंने ब्लॉगोदय में संध्या शर्मा जी का पोस्ट पढ़ते हुए देखा ,जिसमें उन्होंने ब्लॉगरों को ब्लॉगोदय में शामिल होने के लिए अपना लिंक कमेंट बॉक्स में छोड़ने के लिए लिखा हुआ था । मुझे भी इच्छा हुयी,पर मैं दुविधा में था की क्या मुझे इसमें शामिल करेंगे । फिर भी मैंने अपना अनुरोध वहां पर छोड़ दिया,सुबह जब आँख खुली तो,ब्लॉगिंग की दुनिया के बादशाह श्री ललित शर्मा जी कमेंट nice keep it up पढ़के,बहुत ख़ुशी हुयी। साथ ही सर ललित शर्मा जी ने मुझे ब्लॉगोदय के लेन 1 में जोड़ दिया था । और इस तरह मेरे दिन की शुरुवात अत्यंत ख़ुशी के साथ हुआ,ऊर्जा,एनर्जी,कॉन्फिडेंस के साथ हुआ। यूँ तो उठने के बाद भी मैं  ठीक से उठ नहीं पता,पर आज ऐसे उठा की लगा काश हर दिन मैं ऐसे ही उठता । तैयार होने में घंटो लग जाते थे पर आज फटाफट तैयार होकर यूनिवर्सिटी के लिए निकल गया,इतना खुश जो था । 
सुबह बर्फ से ढंकी हुयी थी जो  इस ख़ुशी में और भी सुहानी सी लग रही थी,यूनिवर्सिटी जाते हुए,रस्ते में मेरा मकान मालिक वादिम मिल गए। नए वर्ष में पहली बार उनसे मिलना हुआ, उनसे ख़ुशी ख़ुशी हाँथ मिलाया और स नोविम गोदोम (रशियन में हैप्पी  न्यू  ईयर ) बोला ,उन्होंने भी मेरी ख़ुशी झांक ली बोले वि इस्चेते ओचेन सचतस्लीव सिवोद्न्या (आज बड़े खुश लग रहे हो),मैं हँसते हुवे यूनिवर्सिटी निकल गया । 

Sunday, January 10, 2016

चलो.. भागते हैं..

गिंया पापा (इसकी जानकारी के लिए आप मेरा पोस्ट छत्तीसगढ़ प्रथा पढ़ें) के घर में उनके बड़े भाई के लड़की की शादी थी। तब हम  मैं और मेरा छोटा भाई करीब 8-9 साल के थे। मेरा छोटा भाई मुझसे सिर्फ 1 साल छोटा है,उनके घर जो हमारे गांव से 5 किमी दूर तालदेवरी में है,बारात से एक दिन पहले पहुंचे थे,साथ में मम्मी,पापा भी गए हुए थे। दिन भर इधर उधर किये होंगे की रात को हम खाना वाना  खाकर,गिंया भाई के साथ उनके छत पे चले गए,हम कब वहां सोये कुछ पता नहीं,सुबह जब आँख खुली तो मम्मी पापा को ढूंढने लगे । किसी ने बताया की वो लोग रात में घर चले गए थे । हम सोये थे तो,उन्होंने नहीं उठाया सोचा होगा की,सुबह तो आ ही रहे है और आना भी था उनको वैसे भी शादी वाले घर में चैन से सोने को नहीं मिलता और पापा भी दिन भर दुकान में माथापच्ची कर थके होते थे। अब हमें  इधर उधर करते हुए,काफी टाइम हो गया,कोई ध्यान नहीं दे रहा था ,गिंया पापा और मम्मी के आलावा सब अनजाने से लग रहे थे,हमें भूख भी लगने लगी,तब गिंया भाई से ही बोला,उसने अपनी दादी को बोला तो उन्होंने बात टाल दी ये कहते हुए की नाश्ता बाद में मिलेगा जब सब बैठेंगे ।गिंया भाई ने कोशिश की कि जिस कमरे में नाश्ता रखा हुआ है,वहां से ले आये पर वहां ताला लगा कर दादीजी चली गयी,काफी टाइम बाद हम अब बेसब्र हो गये थे। मैंने और मेरे भाई ने सोचा कि अब हम इस गांव से ही भागते है,फिर क्या हम चल पड़े,सोचा था बिर्रा पहुँच जायेंगे चलते चलते।इससे पहले हमने कभी चला ही नहीं था , कुछ ही दूर चले थे की पीछे देखते कितना दूर छूटा  पर फिर भी,वो गांव दिखाई देता। अब धीरे-धीरे हम अपनी बीच मंज़िल यानि आधा रास्ता तय कर चुके थे,हमें काफी तेज प्यास लग रही थी,हम इस जगह खड़े थे ,वही तालाब था,जिसके बारे में हमने काफी सुना हुआ था कि इसमें भूत रहते है। और वह तालाब लगता भी था भूतिया आसपास बड़े बड़े डरावने से बरगद  के पेंड़, तालाब के बीच में टुटा सा खम्भा ,हमारी वहां जाने की हिम्मत नहीं हुयी । इसी बीच कुछ हमारे पहचान वाले रोड के उस तरफ गाड़ी से जाते हुए नज़र आते हैं,हम उन्हें आवाज़ देने वाले थे,पर वो रफ़्तार से निकल गए शायद उन्होंने हमें देखा नहीं था, और आगे बढ़ते हैं कुछ दूर ही चले थे की छोटे भाई से चला नहीं जा रहा था,थोड़ी देर मैंने उसको पीठ  से उठा कर चलने की कोशिश की,पर मैं  भी थक चूका था,अब हम कुछ देर  थके हारे खड़े रहे थे । तभी एक साइकिल वाले को आते देख उसे रुकवाते हैं,हम उसे किसी भी तरह बिर्रा छोड़ने के लिए कहते है,पर उसने अपने पुरे साइकिल में झाड़ू बांध रखा था,वो उसे बेचने के लिए बिर्रा ले जा रहा था ,पर वो फिर भी एक को ले जाने के लिए तैयार हो गया,उसकी भी मज़बूरी थी साइकिल में जगह ही नहीं था। हम भाई एक दूसरे को उसके साथ जाने के लिए बोलते हैं पर ना भाई मेरे बिना जाने वाला था ना मैं उसके बिना । हम साइकिल वाले को भेज देते हैं,और फिर अपना अथाह सा लगने वाला सफर पूरा करने में लग जाते है । बहुत कोशिशो के बावजूद भी हम बिर्रा को देख ही नहीं पा रहे थे,इतना चलने के बाद भी ऐसा लगता की थोड़ी ही दुर्र चल पाये सूरज भी तेज होते जा रहा था । मरने की हालत में हमें दूर से बिर्रा का प्रवेश द्वार दिखाई दे जाता है,हम एक दूसरे को हिम्मत देते हुए,कि अब बस कुछ ही टाइम में हम पहुँच जायेंगे ,आगे बढ़ते जाते है,पर प्रवेश द्वार था की पास आने का नाम ही नहीं ले रह था। किसी तरह हम प्रवेश द्वार पहुँचते हैं,और पानी की तलाश में पास के कॉलोनी में जाते हैं,क्योकि हम उस टाइम पानी नहीं पीते तो शायद मर ही जाते,बोरिंग से पानी पिते वक़्त मुझे ऐसा लगता है कि, मम्मी  पापा गाड़ी से जा रहे है,भाई को बोलने पर उसने बोला नहीं वो नहीं है,वैसे गाड़ी दूर जा चुकी थी। अब पानी पिने के बाद घर की तरफ चलते है,पास पहुचने पर देखते है घर का दरवाजा बंद है,अब भूक से भी बेहाल और अथाह संघर्ष पानी में डूबता नज़र आता है । और ना चाहते हुए भी आंसू मेरे आँखों पर आ जाता है, पास के लोग आ जाते है,हमें परेशान देख कर,पूछने का दौर चल पड़ता है,और पास में ही किराने का दुकान चलाने वाले साहू चाचा हमें अपनी दुकान पर ले जाते है और शांत कराते हुए ,मिक्सचर खाने को देते हैं,उनके पास ही एक तालदेवरि  का आदमी आता है वो उसको वहां खबर करने के लिए बोलते है,की बच्चे यहाँ आ गए है, 15 मिनट ही बैठे थे की पापा आ गए,उन्हें देख कर हम और भावुक हो गए। पापा हमें होटल ले गए और वहाँ  मनपसंद चीजे खिलाई,और बताया की तुम्हे ऐसा नहीं करना चाहिए था। वहां तालदेवृ में लोगों के गले से खाना नहीं उत्तर रहा है बच्चे कहा गायब हो गए सोचकर,तालाबों जाल फेंककर ढूंढा जा रहा है,पहचान के पुलिस द्वारा बसों को रोककर भी ढूढ़ा जा रहा है,हमने बस भी नहीं रुकवाई ,क्योकि पैसे नहीं थे और मुझे याद नहीं आ रहा की रस्ते में हमें बस दिखा था या नहीं,पापा हमें वापस तालदेवृ ले जाते हैं,हम मना करते हैं पर पापा कहते हैं,मैं तुम दोनों के सामने उन सबको डाँटूंगा,जिन्होंने तुम्हारा ध्यान नहीं रखा और खास कर के दादी को ,और हुआ भी ऐसे ही। बड़ी ही दर्द भरी सफर थी तालदेवरि टू बिर्रा जो बड़े होने के बाद गाड़ी से 10 मिनट भी नहीं लगती,सच है समय बलवान होता है हमेशा से ही ॥। 

छत्तीसगढ़ प्रथा..

हमारा छत्तीसगढ़ अपने आप में कई अनोखी संस्कृतियाँ लिए हुए है। जो शायद भारत के किसी और राज्यों में ना हो। जहाँ त्योहारों में हरेली,भोजली आदि कई हैं,तो प्रथा में एक प्रथा गिंया या मितान बदना अर्थात किसी मित्र का  किसी अन्य मित्र से नारियल के आदान प्रदान और कुछ लोगों के उपस्थिति में मित्रता का ऐसा रिश्ता बनाना।जिसमें उन दोनों का परिवार एक होकर उनके दुःख सुख के साथी बन जाते थे । एक तरह से दो परम मित्र या घनिष्ठ मित्र इस प्रथा में एक दूसरे को गिंया या मितान कहते थे । और एक दूसरे के यहाँ सुख और दुःख दोनों के आने के पहले से ही हाजिर हो जाते थे । अगर वे शादीशुदा हैं और उनके बच्चे हैं तो वे बच्चे अपने पिता को पिता और पिता के गियां को गियां पापा या गियां बाबू  कहते थे। और इसी तरह माता के लिए भी यही प्रक्रिया चलती थी ।  
माताएं अपने पति के गियां को आते हुए देखती या सुनती तो,अपना सर ढँक लेती और अपने स्थान से किसी और स्थान चली जाती,अर्थात जिस प्रकार महिलाये अपने पति के बड़े भाई का आदर करती वही आदर पति के गियां का होता,इस रिश्ते में गियां पति और गियां पत्नी कहने का कोई रिवाज नहीं था। महिलाये आपस में  अपने बच्चो के गियां पापा कह ,एक दूसरे को चर्चा या बातचीत करती थीं । 

आज के दौर में तो ऐसी प्रथा बंद हो रही है, पर फिर भी जो  पुराने समय से गियां हैं,वो अपनी प्रथा या मित्रता निभाते आ रहे है। त्योहारों का हाल भी अब पहले जैसा नहीं रहा लोगों में उत्साह अब ज्यादा नज़र नहीं आती,शायद लोग अब इनमें कुछ तथ्य ढूंढ ना पाते हों। 

मेरे पिताजी और दादाजी के भी गियां है,जिन्हे हम मिलने पर गियां पापा या गियां दादा या सिर्फ दादाजी ही कह कर पुकारते हैं। 

मैंने ज़िन्दगी से मतलब के आलावा कुछ नहीं लिया 

Friday, January 8, 2016

बलिप्रथा...

मैं तो चला था भगवान को बताने,  लोगों ने मुझे ही भगवान बना दिया,
कोई राह दिखा नही उस तक पहुंचानी कि,तो मैंने बलिप्रथा बना दिया।



जब हम अपने घर में शांति का अनुभव नहीं कर पाते या जीवन में अशांति छा जाती है। तब ही मंदिरो को ज्यादा याद करते है,और सही भी है,मंदिर हमें मानसिक शांति का अनुभव कराते है,कभी कभी तो ऐसा लगता है, कि हम यूँ ही भगवन के पास बैठे रहे,भक्त और भगवान का ऐसा अनुभव जहाँ हो वह मंदिर है। 

पर दूसरी तरफ कई मंदिरो का ऐसा सच भी है जो सदियों से चलते आ रही है । वो है बलि देने की प्रथा, लोग कहते है ये प्रथा सदियों से चली आ रही है । उनका तथ्य है पहले के लोगों ने जो प्रथा चलायी है वो 100% सही है। 
पर सवाल ये उठता है की क्या पूर्वजो ने आम के पेड़ को इमली का बता दिया तो,हम आज उसे ईमली ही बोले मतलब पहले के लोग गलती ही नहीं करते थे,अरे भाई ऐसे  तो सतयुग ही रहता ,फिर आज कलयुग कई वर्षों पुराना है,मनोकामना की पूर्ति  करने के लिए,किसी जानवर की बलि देना कितना उचित है, जो खुद में अपनी जान बचने का दिमाग रखते है ,क्या बलिप्रथा सच में भगवान तक पहुँचती होगी,आस्था का यह रूप बड़ा ही भयावह होता है.
                                      
                                                                     गूगल फ़ोटोस से लिया गया 

मेरे व्यक्तिगत राय से ये प्रथा मुझे कही से भी सही नहीं लगती,अरे भाई जिन भगवान ने हमको बनाया,उन्होंने ही तो जानवरों को भी बनाया है,क्या बकरे का भी अलग भगवान होगा,जो उसे बनाया होगा ज़ाहिर सी बात है, नहीं । 
फिर अपने ही बनाये प्राणी की बलि लेकर,क्या उन्हें कुछ मिलता होगा,नहीं बलि का मतलब त्याग होता है,अपने अंदर की बुराइयो का,भगवान बलि नहीं मांगते इस कथन की पुस्टि करती ,एक कहानी आती है.. 


आर्यावर्त के राजा हरीशचंद्र को जलोदर की बीमारी हो गई थी। इसके उपचार के लिए किसी बालक के बलि देने की सलाह दी गई तब ब्राह्मण अजीगर के बालक सुनाशेव को बलि के लिए सुनिश्चित किया गया। यह खबर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंची जहां भगवान परशुराम ज्ञानार्धन कर रहे थे।

परशुराम ने इस प्रथा का यहीं विरोध करने का संकल्प लिया। आज यह जानकारी परशुराम का पारायण कर रहे पं. रमेश शर्मा ने श्रोताओं को दी।

जब वशिष्ठ के आश्रम में बालक की बलि दी जाने की खबर पहुंची तो परशुराम हतप्रभ रह गए। उन्होंने गुरू वशिष्ठ को कहा कि क्या आप राजा हरीशचंद्र का उपचार तप और बल से नहीं कर सकते जिससे किसी बालक की बलि नहीं देनी पड़े।

वशिष्ठ बोले- मैं तप, बल से बलि को नहीं रोक सकता, किन्तु तुम हरीशचंद्र की सभा में जाकर इस बलि का विरोध करो और वरूण का आव्हान करके महाराजा का उपचार कराओ।

परशुराम तुरंत अपने चार मित्रों के साथ हरीशचंद्र के दरबार में पहुंच गए वहां परशुराम के पिता जमदग्रि और विश्वामित्र भी उपस्थित थे।

यहां परशुराम ने राजा को अपना परिचय भार्गव परशुराम कहकर दिया और महर्षि जमदग्रि को अपना पिता बताया। राजा ने तुरंत परशुराम को स मान दिया और उनके आने का कारण जाना। तब परशुराम ने कहा कि आप अपनी बीमारी के उपचार के लिए एक बालक की बलि दे रहे हैं।

क्या इस बलि के बिना आपका उपचार नहीं हो सकता? परशुराम ने कहा- क्या कोई देवता किसी प्राणी को ग्रहण कर सकता है।

यह काम तो दैत्यों का है जो मनुष्यों का रक्त पीते हैं। राजा ने कहा कि मैंने बलि के लिए नहीं कहा और न ही मैं अपने उपचार के लिए किसी निर्दोष बालक की बलि चाहता हूं। तब परशुराम ने प्रसन्न होकर वरूण के आव्हान की अनुमति मांगी, उन्हें अनुमति दी गई।

परशुराम ने वरूण का आव्हान किया जैसे ही सभा स्थल के वायु मंडल में वरूण के आने का आभास हुआ वैसे ही वातावरण रोमांचित हो गया।

चंूकि वरूण जल के देवता मानेे जाते हैं जैसे ही वे प्रगट हुए उन्होंने राजा की जलोदर बीमारी को हर लिया। तब राजा ने बालक सुनाशेव को मुक्त करने का आदेश दिया। इस तरह से भगवान परशुराम समाज में व्याप्त बलि प्रथा जैसी कुरीति को दूर करने के लिए सामने आए। 
                                                             ( कहानी शिवपुरी समाचार डॉट कॉम से लिया ) 

आप सोंचिये और इस प्रथा को गलत शाबित करिये,मांसाहार के खिलाफ तो हूँ पर कुछ नहीं कहूँगा ,पर प्रथा के नाम पर ऐसी बातें घटिया लगती है,बलि देने के बाद  क्या होता है जानवर का,लोग उसकी दावत उड़ाते है,है ना । 

Thursday, January 7, 2016

रामप्यारी...

  चाह नहीं कुछ दुनिया से बस सबके प्रेम का प्यासा हूँ, तन्हाई ना हो जीवन में कर,मैं निश्छल रिश्ते बनाता हूँ। 

हमारे घर का काम शुरू हो रहा था,घर के सामने रेत,गिट्टी वगैरह रखे गए थे,उस समय मैं आठवी, नवमी क्लास में था, दुकान के पास खोली में प्लाईवूड खड़ी स्थिति में दिवार पर टिके रखे थे,जो छोटी झोपडी जैसे लग रही थी।  
उस समय मैं सुबह,सुबह दुकान खोलता था,पापा घर के काम पे ध्यान देते,एक दिन सुबह मैंने देखा कि दुकान के  सामने रोड के दूसरे साइड,एक कुतिया अपने बच्चों को दूध पिला रही थी, मुझे उन पप्पीज के साथ खेलने का मन हुआ, मैंने कुतिया जी को आवाज दी ,और वो अपनी पूरी फैमिली के साथ दुकान के सामने हाज़िर होगयी,सभी बड़े प्यार से मेरी ओर देख रहे थे,उनकी आँखों में उम्मीद थी,मैं जल्दी से घर के अंदर गया और कुछ बिस्किट्स लाकर उनको दिया,सबने खा लिया और वही पुंछ हिलाते खड़े रहे,सभी बच्चो में से एक बच्ची मेरे से ज्यादा घुल मिल रही थी.
अगले दिन मैं फिर दुकान खोलने  लगता हूँ ,तो देखता हूँ पूरी फैमिली आकर रेत में खेल रहे थे,मुझे ख़ुशी हुयी उन्हें देखकर, मैंने सिटी बजायी और वो सारे के सारे मेरे पास आके,पूछ हिलाने  लगे ,इन बच्चो की माँ कुतिया बड़ी शांत स्वाभाव की थी,वो चुपचाप खड़ी रहती, मैंने आजतक ऐसे शांत कुतिया नहीं देखि,मैंने आज मम्मी से कुछ उनके खाने के लिए लाने को कहा,वो बच्ची फिर मेरे सांथ खेलने लग गयी,मम्मी को बोले काफी देर हो गए थे,मैं फिर से आवाज देने वाला ही था कि मम्मी रोटी बनाकर ले आई थी,और उनको एक कार्टून के टुकड़े पर रख दिया उनके सामने,उन्होंने सारी  रोटी खा ली,बच्ची मेरी मम्मी के पास गयी और मम्मी ने उसे रामप्यारी नाम दे दिया,अब हम उसको रामप्यारी कहते,और उसके माँ को रामप्यारी की माँ ,,

अब उनका अड्डा दुकान के सामने की खोली पर रखे प्लाईवुड बन गयी वो सारे बच्चे उसके  अंदर सोये पड़े रहते थे,मम्मी पापा भी कुछ नहीं करते उन्हें,कभी कभी रामप्यारी को खेलने का इतना मन होता की अगर मैं  दुकान के अंदर रहूँ तो वो काउंटर के उपर दो पैर रख के झाँकने लग जाती और बाहार निकाल के ही मानती,वो सब धीरे धीरे बढ़ने लगे और घर का काम भी धीरे धीरे चल रहा था ,
एक दिन रात को दुकान बंद करते वक़्त पापा ने सोचा की चैनल बंद रहेगा और ये अंदर ही रहे तो, गंदगी कर सकते है,और उन्हें बाहर निकल दिया,मुझे दुःख हुआ,पापा रात में दुकान का हिसाब देखने पहुँचते है,उन्होंने खोली के तरफ देखा,वो बच्चे चैनल पार करके अंदर आ गए थे,फिर पापा ने उन्हें बाहर नहीं निकाला।

एक दिन रामप्यारी के भाई के साथ ,पड़ोस की एक बदमाश बच्ची खेल रही थी,वो उस बच्चे का पूंछ,कान पकड़ के हवा में घूमाँती,और वो छटपटाता रहता,वो अक्सर ऐसा ही करती शायद उसको ऐसा करना अच्छा लगता रहा होगा,लेकिन आज शायद उसने हद्द करदी, रामप्यारी के भाई ने उसे काट दिया और भाग गया ,हालाँकि चोट सामान्य थी,बदमाश बच्ची घर पहुँचकर बताती है,तो उसका शराबी पिता जो रात दिन शराब में डूबा रहता,वो गुस्से से आगबबूला हो गया,अब उसने सोच लिया की वो कुतिया के बच्चो को नहीं छोड़ेगा,और उसने अपने साथ और आदमी और डंडे ले लिए,रामप्यारी के भाई को उन्होंने मेरे घर के सामने मार दिया,मैं  इस घटना के वक़्त  स्कूल से आ रहा था,मेरे आते तक उसकी चीखें फ़ैल रही थी,मैंने मम्मी से पूछा की क्या हुआ,ये चीखे क्यों,मम्मी ने सारी  बात बताई,उन्होंने कहा की तेरे पापा ने उसे ऐसा करने के लिए मना  भी किया,और उसकी बेटी की गलती भी बताई,पर उसने उल्टा तेरे  पापा को बोल दिया की, अगर आगे ऐसे कुछ होता है तो आप इसकी जिन्मेदारी लोगे,जिम्मेदारी मतलब सारा खर्च ऑन डिमांड,पापा की उसने एक ना सुनी।

मैंने रामप्यारी के बारे में पूछा ,मम्मी बोली वो भाग गयी है कहिं,मैं बहुत दुखी था,उदास बैठा था,शायद मेरे दोस्त मुझे अकेला करने वाले थे,तभी घर के पीछे तालाब की तरब से आवाज आती है,अथाह दर्द से चीखने की 
मैं  जल्दी से छत की तरफ भागता हूँ,और देखता हूँ कि लोगों की भीड़ के बीच रामप्यारी का एक और भाई तड़प रहा है,लोग उसे पत्थर और डंडों से मार रहे थे,मैं  ये और नहीं देख सका लेकिन छत में ही रुका रहा रोता रहा,
और आवाज़ बंद हो गयी,वो भी नफरत के आगे हार गया,क्या हक़ है हमें किसीको  मारने का,मैं सोच ही रहा था की भीड़ मेरे घर के बगल में कुछ दुरी पर आ गयी थी, मुझे लोगों का सर ही नज़र आ रहा था,तभी मैंने देखा,की एक आदमी एक पत्थर को दोनों हांथो में ऊपर से निचे की ओर जोर से पटक रहा है,और फिर एक छोटी चीख के साथ आवाज़ बंद हो गयी,मम्मी ने बताया वो रामप्यारी थी,दुकान में काम करने वाले ने बताया वो वही पर था। 

उस रात रामप्यारी की माँ अकेली हो गयी,शायद मैं भी ,रात भर रामप्यारी की माँ रोती रही,उसकी आँखे अपने मासूम बच्चो को ढूंढ रही थी,वो बच्चे जो कभी उसकी और हमारी ख़ुशी बनते रहे थे। 
 राम की प्यारी,राम के पास चली गयी,राम भी उनको ना बचा पाये। 

बार बार मरने से एक बार अच्छा,डर मौत से नहीं उसके तरीकों से होता है,इतनी दर्दनाक मौत क्यों।

आज भी रामप्यारी की माँ उसी गली में घूमती है,.मम्मी अब भी कभी कभी उसे खाना देती रहती है. 
कुछ ऐसे ही दिखती थी रामप्यारी 


Tuesday, January 5, 2016

इम्तेहान खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी...

कई बार हम लाईफ़ के ऐसे इम्तेहान में फंस जाते है,कि शारीरिक,मानशिक और सभी टाइप की तकलीफों से हारे-थके नज़र आते हुए बस यही सोचते है, कि हे भगवान बस इस इम्तेहान से मुझे पार करा दो.

बात उस टाइम की है,जब मेरे बहुत से मेडिकल के एंट्रेंस एग्जाम चल रहे थे, मुझे AFMC के एग्जाम के लिए 
जबलपुर सेंटर जाना था,पापाजी बहुत बिजी चल रहे थे,हम सोच रहे थे कि जाना कैसे है,और कौन जायेगा साथ में,जबलपुर चूँकि हमारे यहाँ से बहुत दूर था, तब मम्मी बोलती है कि मौसा-मौसी पहले जबलपुर में रहते थे,मौसा 
जी की नौकरी वही थी,फिर मेरा दिमाग काम करने लगता है कि,इस बार पापा को तकलीफ नहीं देना है,
कैसे भी हो मौसा जी के साथ ही जाना है। 

मैंने मौसाजी को फोन किया और सारी बातें बताई वो राज़ी हो गए, उन्होंने कहा, बस से जाना सही रहेगा एग्जाम से पहले दिन बस से निकल जायेंगे आराम से,बस फिर मैं भी टेंशन फ्री हो गया। 

एग्जाम से एक दिन पहले मुझे बिलासपुर पहुचना था,मौसाजी कटघोरा से बिलासपुर आते फिर साथ में जबलपुर के लिए निकलने का प्लान था, फिर इस दिन सुबह मैं बिलासपुर के लिए बिर्रा से बस पकड़ता हूँ,बस अपनी स्पीड से चल रही थी,कि 18-20 कि.मी के बाद बस का गेयर काम करना बंद कर दिया,बस पहले गेयर से आगे 
नहीं बढ़ पा रहा था,फिर क्या सभी यात्री बस से उतर के दूसरे बस का इंतज़ार करने लगे,बस कुछ देर बाद मिल 
गया पर मुझे डर था ज्यादा लेट न हो जाये बिलासपुर पहुँचते, क्योकि मौसाजी से बात करने के अनुसार वो दोपहर तक पहुचने वाले थे। 

मै बिलासपुर पहुचता हूँ, बस से उतरते ही खतरनाक धुप का सामना हुआ,मैं मौसा को कॉल करता हूँ ,कहाँ पहुंचे मौसाजी वे बोलते है काम फंसा हु,जल्दी निकलता हूँ मैंने पूछा कितना टाइम लग जायेगा आपको आने में वे बोले 2 घंटे मैं सोचता हूँ,चलो अब काटते है 2 घंटे ,पास में ही एक जूस वाला  जूस निकल रहा था,मुझे पिने की इक्षा हुई, मैं गया और आम जूस पीकर वहीं काफी देर तक बैठा रहा,फिर कुछ देर बाद लगा कि चलो अब यहाँ से निकलते है,कब तक बिचारे का जगह लूंगा,फिर बस स्टैंड के पास हनुमान जी का मंदिर था,मैं वहाँ  बैठ गया.

वहाँ बैठे कई घंटे हो चुके थे,मैंने फिर मौसाजी  को फोन किया वो बोले निकल गया हूँ,बस आधे रस्ते में है,मुझे लगा चलो 1 घंटे में आ जायेंगे,पर वे नहीं दिखे अब शाम हो रही थी 5 बजने वाले थे,फिर मौसाजी का कॉल आता है वो पहुंच गए,मैं इधर उधर घूमने के बाद उन्हें मिल ही गया,मुझे गुस्सा भी आ रहा था की इतना लेट,पर सोच 
रहा था की ,काम के वजह से फंसे रहे होंगे और बता नहीं पाए रहे होंगे। 

हमने होटल में खाना खाया,वेटर ने पूछा था की सब्जी में  क्या लाऊ  उसने पूरा मेनू भी बताया,मुझे मौसाजी ने पूछा तुम क्या लोगे,मैंने झिझकते हुए आप जो बोले और थोड़ा डरता भी था वही पापा वाली फीलिंग और मौसाजी लगते तो पुलिस वाले जैसे थे पर पुलिस नहीं थे ,उन्हें करेले की सब्जी बहुत पसंद है वो मेरे लिए भी वही बोलते है
मुझे करेले की सब्जी पसंद नहीं है पर बोल नहीं पाता,जैसे तैसे खाने के बाद बस के रिजर्वेशन के लिए स्टैंड पहुँचते है. 

सीट रिज़र्व हो जाता है ,बस रात में 11 बजे छूटने वाली थी , अब हमें फिर वेटिंग करना था टाइम जो नहीं हुआ था अभी, जैसे तैसे ये टाइम भी कटता है,अब हम बस में बैठ चुके थे बस चलती है ३-4 घंटे बाद बस एक सुनसान में ढाबे के पास रूकती है,पूछने पर पता चलता है यहाँ से मध्यप्रदेश स्टार्ट होगा (जबलपुर म.प्र.में है ) तो हमें दूसरी बस आके ले जाएगी इस बस का सफर इतना ही था,करीब फिर 1 घंटे के इंतजार के बाद एक मस्त सी बस आती है,और हम रिलैक्स हो जाते है. 

हम सभी यात्री बस में चढ़ने की कोशीश करते है,पर सब परेशान ड्राइवर,कंडक्टर ने साफ़ मन कर दिया बस में कोई जगह नहीं है,देखने पर भी पूरी बस भरी हुयी थी,अंदर सब सो रहे थे,हम सभी यात्रियों ने हंगामा करना शुरू कर दिया,सब अपना अपना रिजर्वेशन दिखा रहे थे,ड्राइवर ने कह दिया रिजर्वेशन यही तक था अब कोई रिजर्वेशन नहीं है,सभी यात्री उसे डराने धमकाने लगे किसी ने बोला  की मैं तुम्हारी कंपनी के खिलाफ कम्प्लेन करूँगा,पर ड्राइवर ने साफ़ कह दिया जो करना है कर लेना ,मालिक को तो कोई बोलता नहीं,सब हमपे ही चढ़ते है सब तुम यात्रियों की गलती है,भुगतना हमको पड़ता है,  इससे साफ़ पता चलता है की ये शिलशिला  हमेशा का होगा, जैसे तैसे उसने कह दिया,बस में आ सकते हो,पर जगह तुम जानो,सब मजबूर थे आधी रात को कौन दूसरा बस देखे वो भी इस सुनसान में,बस में दम घुटने वाला माहौल था,जो यात्री पहलेसे इस बस में थे वो अपनी सीट में किसी को क्यों बैठते फिर भी 2 -4 लोगों ने किसी किसी को जगह दे दिया,फिर भी अधिकतर सामने ड्राइवर,कंडेक्टर वाली जगह पर खड़े थे कुछ वही निचे बैठ गए,ड्राइवर बहुत गुस्से में था,फिर भी उसने मुझे बस के इंजन वाली जगह जो चौड़ी होती है जहा एक लोहे का पिलर लगा होता है,उसकी ओर बैठने का इशारा किया पर उसमे पहले से ही 4 बौद्ध भिक्षु बैठे थे,मैं  फिर भी वहा बैठने की कोशिश करता हु,पर मुझे लग रहा  बैठना 
एक भिक्षु को अच्छा नहीं लग रहा था,वो मुझे बिलकुल भी सहयोग नहीं कर रहा था,उल्टा धीरे धीरे धकेलने की कोशिश करता,मैं मन सोचता हूँ सब साले दिखावे के हैं, मैं उस पिल्लर के सहारे अपना तशरीफ़ टिकने की कोशिश करता रहा,उधर मौसाजी भी बस के दरवाजे की सीढ़ी के ऊपर बैठे होते है.

काफी देर वैसे ही बैठे हुए भी,मुझे नींद आने लगती है,मौसाजी मुझे आदेश देते है कि पीछे जाओ और बैठो,कही पर जगह देख के,मैं जाता हूँ ,एक बच्चा सोया था,उसको बिना डिस्टर्ब करते हुए बैठ जाता हूँ,पर उसके  माँ की नज़र मुझे बुरी तरह घूरती है,वो कहती है आप यहाँ से उठो मेरा बच्चा उठ जाएगा आप कैसे बच्चे की जगह पे बैठ सकते हो,मैं वहां से उठकर सामने आ रहा था कि मौसिया (मौसा जी) जी आकर मुझे एकदम पीछे लेजाते है 
जहा कुछ लफंडर सोये हुए थे वे उनको बोलते है कि इसे सोना है, भाईलोग कुछ नहीं बोलते जगह दे दते है.
ये सीट छोटी बेड जैसी होती है,जिस पर 4 लोग आराम फरमा सकते है,मैं सोने की कोशिश करता हूँ.उधर मौसाजी को भी किसी ने जगह दे दिया था,मैं सो जाता हूँ। 

सुबह जब रौशनी आती है आँख खुलती है,लफंडर भाईलोग नहीं थे शायद वो जा चुके थे ,पर मेरे पास में एक महिला अपने 6-7 साल बच्चे के साथ बड़ी परेशानी  वाले भाव में बैठी है,मुझे कुछ समझ आता इससे पहले वो जल्दी से अपने बच्चे की मुंडी पकड़ के खिड़की में डाल देती है,बच्चा पूरा डैम लगा के उल्टिया मारने लगता है,
बस के चलने के कारण उलटी के छींटे मुझपर पड़ने लगते है,और मेरे दिन की शुरुवात उल्टी से नहां के होती है। 

बीच में बस रुकता है करीब 6 बज रहे थे,ड्राइवर झोपडी वाले दुकान से पारलेजी की कई पैकेट लेता है,मुझे लगता है,ये सारा खाने वाला है पर वो सड़ासड़ पैकेट फाड़ते जाता है और सब बिस्कुट को हाँथ से टुकड़ा कर कर के कौंवों को खिलाने लगता है,शायद भक्ति भाव वाला रहा होगा।

हम अब जबलपुर पहुँच चुके थे,कल के बीते हुए थकाऊ रात और दिन के बाद,आज  मुझे पेपर देना था,
पेपर ख़त्म होने के बाद,बाहर आता हूँ,मौसाजी पानी का बोतल लेकर खड़े है,पानी पिता हूँ,फिर खाने की तलाश में निकलते है ,एक होटल अच्छी दिखती है,वहाँ खाना खाए हालाँकि रेट के हिसाब से न तो खाना अच्छा था,ना खाने की मात्रा। 

मौसाजी से वापस जाने के बारे में पूछने पर की अब ट्रैन से चले क्या,उन्होंने मना कर दिया, कुछ कारन रहा होगा,
मैंने भी ज्यादा कुछ नहीं सोचा न बोला,फिर बस का रिजर्वेशन हुआ,वेटिंग हुयी और मुझे घर पहुंच के आराम करने की इच्छा हुई पर सफर बहुत दूर का था,इस बार बस में कोई दिक्कत नहीं हुयी,ना इधर ना उधर,आराम करते हुए बिलासपुर पहुंच गए,अब मौसाजी को कटघोरा के लिए बस पकड़ना था,उन्हें बस तुरंत मिल गयी ,उनको  प्रणाम कर विदा किया।

मुझे भी कुछ देर बाद बिर्रा की बस मिल गयी,मैं भी अपने परमधाम घर पहुँच चूका था। पर आज भी उनदिनों को याद करने का मन नहीं होता,कैसा दिन था वो इम्तेहान खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी ॥ 







पापा दी ग्रेट..

  • बात साल २०१२ की है,मैं कोटा से मेडिकल की कोचिंग करके घर आया,घर पे बोर्ड की परीक्षा के साथ ही मेडिकल की तयारी भी करनी थी,जैसे तैसे बोर्ड की परीक्षा खत्म हुई ही थी, कि  AIPMT आ गयी.
  • तारीख और सेंटर सब पता चल गया था सेंटर गांव-नरदहा,रायपुर था, मुझे लगा एक तो एग्जाम का इतना प्रेसर
  • अब रायपुर के लिए एक दिन पहले निकलना पड़ेगा फिर ये नरदहा गांव जाना पड़ेगा, मेरा दिमाग चलने लगा
  • मैंने पापाजी से कहा रायपुर के पास जो भाटापारा में आपके पहचान वाले है,उनसे पूछो की ये नरदहा हमारे बिर्रा से बाइक से जा सकते है,मतलब दुरी तो ज्यादा नहीं पड़ेगी वगरह,पापा ने फोन किया रास्ता साफ मिला,
  • फिर हमने तय किया की पेपर वाले दिन सुबह जल्दी उठ के नरदहा के लिए निकल जायेंगे।
  • पेपर का दिन आया सुबह उठ के भगवान से प्रार्थना कर हम नरदहा के लिए बाइक से निकल गए,सफर शुरू
  • हुआ पर खत्म होने के नाम नहीं ले रहा था,9 बजे से पेपर शुरू होना था इधर मैं बहुत घबरा रहा था,क्युकी ये आईडिया मेरा था ,मानने वाले पापा थे, बीच में हम बलौदाबाजार में रुके वहां पता करने पर पता चला की नरदहा रायपुर का ही पार्ट है,और यहाँ से 1 घंटे लग जायेंगे वहां पहुचने में,अब मैं बहुत डर चूका था,आगे क्या होगा कुछ समझ नहीं आ रहा था ,तभी पापा बोलते है बेटा टेंशन मत ले, 9 बजे तक मै पहुंचा दूंगा,फिर जो पापा ने बाइक दौड़ाई ,हम 9 : 10 पे सेंटर पहुंच चुके थे, मैं पापा से आशीर्वाद लेकर पेपर देने अंदर गया,पेपर जैसे तैसे खत्म हुआ,मैं बाहर आया तब तक धुप बहुत बढ़ चुका था,गर्मी भी बहुत थी पापा एक बनते हुए मकान के पास खड़े थे,
  • मैं पापा के पास गया,पापा ने पेपर के बारे में पूछा फिर हम गन्ना रस और चाट खाकर फिर अपने अथाह राह पर निकल पड़ते है,अब फिर मेरे पापा को अथाह दुरी तय करनी थी,मुझे बहुत दुःख हो रहा था,शायद मैं पापा की जगह होता तो,हज़ारों बार गालियां दे चूका होता,और अपने आप को बड़ा थका बता चूका होता पर ये तो पापा थे,तभी तो कहा गया है,हम शारा कर्ज उतार सकते है पर माँ बाप का नहीं,हाँ नहीं कभी नहीं। 
  • पापा ने मुझे बाइक चलाने नहीं दी,रस्ते में साईं बाबा मंदिर के पास प्रसाद और पानी बाँट रहे थे वहा बहुत से पेड़
  • थे जो छाँव दे रहे थे, हम वहा गए और पूड़ी,खीर का प्रसाद ग्रहण कर फिर निकल पड़े.

  • आज भी जब याद करता हूँ,तो मुझे पापा के ऊपर बहुत ही दुःख आता है,कैसे मेरे पापा बिना रिजल्ट की चाह के मेरे लिए चलते गए,चलते गए कभी भी ये नहीं जताया की उन्होंने कितना मेहनत किया।
  • तभी तो है मेरे पापा दी ग्रेट..




मेरा पैर सीधा कर दो....

कुछ रिश्तों के साथ हम इस दुनिया में आते है,और कुछ ये दुनिया हम को दे जाती है,जो हमारे सगे तो नहीं होते पर जब वो हमें नहीं दीखते तब पूछ बैठते है,यार बड़े दिनों से वो दिखे नहीं।


स्कूल से आने के बाद मेरा सारा वक्त दुकान पे ही बीतता,दुकान जाने का मन तो होता नहीं था पर दुकान घर से लगे होने के वजह से जाना ही पड़ता,क्युकी कभी कभी कस्टमर्स की भीड़ लग जाती थी,कंट्रोल करने के लिए मेरे जैसे जांबाज की जरुरत हो जाती, हाहाहा``



दुकान और ग्राहक के बीच भी एक रिश्ता बन जाता है ,ये बात आज मुझे समझ आती है, पापाजी को ये काम अच्छे से आता था.

मैं जब दुकान में बैठता था,तब कई ऐसे ग्राहक आते जो रेगुलर थे, जिन्हे मैं लगभग रोज ही देखता था,पर किसी से कभी काम के आलावा कोई बातचीत  नहीं करता और न ही वो करते।
इन सब के बीच ही रोज शाम अगर मैं  दुकान पर होता था तो एक ब्यक्ति का डर बना रहता, डर भी यु की वो जब भी आते हवाई जहाज में सवार होकर आते,
उनको हमसे और नौकरों से जल्दी कराने की ही सूझी रहती,वो पास के गांव घींवरा  के थे,और बैद्य थे,अंग्रेजी और आयुर्वेदिक सबकी जानकारी रखते,
बहुत से लोगो के वो ही इलाज थे,लोगो को बहुत भरोसा था उनपर,


प्यार से हम सभी उन्हें महराज  बुलाते, नाम उनका है(था नहीं है अब भी कई लोगो के दिल में ) श्री रामाधार तिवारी , हर शाम उनका ५-६ बजे के बीच दर्शन हो जाता था,चाहे सर्दी हो या गर्मी या बरसात

उनके जीवन का कर्म था रोज मेरे गांव बिर्रा आना, उनके बातो में हास्य ब्यंग भरे होते थे,हमेशा रोने वाले को भी
हँसा कर चले जाते,
हर दवाइयों का उन्होंने अपना अलग नाम बना रखा था जैसे chlorodiene को डीन डॉन ,मतलब ऐसे ही कुछ भी नाम दे रखा था उन्होंने जिन्हे हम बचपन से सुनते हुए,दिमाग में बैठा चुके थे,हाँ कोई नया नौकर आ जाये तो उसे समझने में दिक्कत होती पर महराज जी उनको अच्छी तरह से सिखा देते, सिखाना उनको अच्छे से आता था, हूं , मुझे भी उन्होंने नाम दे रखा था सुखराम,लम्बू ,हालाँकि मैं लम्बा नहीं था,पतले होने के वजह से लम्बा लगता रहा होऊंगा।
वैसे यूरोप आने से पहले वे मुझे  विदेशी बाबू भी बुलाने लगे थे.
वे  रोज बिर्रा बाजार से कुछ न कुछ ले जाते, लहसुन,प्याज उनके खाने से दूर थे,बजरंग बलि  उनके इष्ट थे,अक्सर धोती कुर्ता पहने महराज अपने बाइक स्प्लेंडर में धकधकाते हुए हर शाम बिर्रा की गलियो में नजर आ जाते।
वे आम बुजुर्गों की तरह नहीं थे ७०-८० की आयु  की थकान हमने उनमे कभी नहीं देखि ,चंचल मिज़ाज़ के महराज जी हमेशा चारों ओर नज़र रखते थे.
पापा और महराज कभी कभी  गुड़ाखू (tobacco paste) किया करते थे,इस मामले में नो रूल्स,,


अभी यूरोप आये मुझे कुछ महीने हुए थे,मैं रोज घर पे बात जरूर करता हूँ,एक दिन मम्मी से बात करते हुए

पता चलता है,महराज का बिर्रा से घींवरा जाते एक्सीडेंट हो गया और उसमे महराज जी की मृत्यु हो गयी.
मम्मी ये बात बोलते हुए मुझे समझाती रहती है की बेटा तू दुःख मत करना।
थोड़ा विस्तार से पूछने पर आगे बताते हुए,मम्मी कहती है की ट्रक से उनका एक्सीडेंट हुआ,गलती ट्रक वाले की थी काफी समय तक मेडिकल हेल्प न मिलना और अधिक खून बह जाने से महराज जी की मृत्यु हो गयी.
एक्सीडेंट ऐसे हुआ था की सीधे लेटे हुए महराज के पैर उल्टे से हो गए थे और अंत समय महराज जमींन पर पड़े हुए बोल रहे थे मेरा पैर सीधा करदो।।






Monday, January 4, 2016

मामा गांव और वहाँ के लाइफटाइम उपहार .

यूँ तो सबको अपना ननिहाल अच्छा ही लगता होगा ,पर बचपन में गांव घूमने में जो मजा आता था,बड़े होने के बाद बचपन वाली बात नहीं रह जाती।
स्कूल की गर्मी छुट्टी होने के बाद जी फड़फड़ाता रहता था कि कब पापा मामागांव छोड़ने जाये या मामागांव से कोई लेने आ जाये,बात ही कुछ ऐसी थी ममागांव की ,तालाब,बगीचा,खेत,दोस्त सब कुछ था.
भाई कम दोस्त ,हाँ ,मामाजी के बेटे,बड़े मामाजी के बेटे सब शहरो से गर्मी की छुट्टिया मानाने आये रहते बस फिर क्या सब मिल के बगीचा आम तोड़ने जाते,साथ में माचिस की डिब्बियो में नमक,मिर्च पाउडर  रखके भी ले जाते थे.मोना(बड़े मामा का  छोटे बेटा ),सोनू ,सोमेश,विनोद,धीरज,गोलू ,मनु ,ओंकार ,मेरा छोटा भाई छोटू सब के सब,एक बार की बात है,मोना ने एक खेत को उन्ही लोगो का बताकर आम के पेड़ में चढ़ गया और एक दो और को चढ़ा दिया कुछ देर में काफी आम हो गए,तभी थोड़ी दूर से कोई बुढा जोर जोर से गले फाड़ रहा था,तब मोना को याद आया के ये पेड़ उनका नहीं है रे बाबा हम सब तो धन के खेत के रस्ते भाग लिए मोना अटका रहा ऊपर,खैर बहुत मुस्किल से उसने भी जान बचा ली ,इधर खेत के अंदर चप्पल भी फंस जा रहा था,फिर चप्पल निकल भगा क्युकी भागना तो था डर गए थे सभी. 

ऐसी ही एक बार खेत जाते हुए दोस्तों ने साँप देखा और भागने लगे, मैं थोड़ा आगे गया एक पीले रंग का साँप था 
पर कुछ हलचल नहीं कर रहा था ,मैंने डंडे से उसे दूर से छुआ वो तो मारा हुआ था फिर क्या मैंने उसको डंडे से लटकाकर भईलोगो को डराना शुरू कर दिया फिर बड़े मामा आये और बताये की इसको अहिराज कहते है.
फिर उस साँप को जमीं में गाड़ दिया गया.

तैरने की शुरुवात -मैंने  तैरना  मामा के गांव में ही सीखा,जब मैं कुछ छोटा था तब जब मामा के गांव गए थे ,वही मुझे मेरे छोटे मामा भानु मामा ने तैरना सिखाया,मुझे लगता था की मै कभी तैर ही नहीं पाउँगा,तब एक बार भानु मामा ने तालाब में मुझे अपने पीठ पर रखके तालाब के दूर तक लेके गए और कहा चलो तैरो मई तुम्हे छोड़ रहा हु,मै  न नुकुर कर ही रह था उन्होंने मुझे छोड़ दिया और  मै  डूबने लगा,मुझे याद है उस वक्त मुझे ऐसा लग रहा था की मै मर जाऊँगा लेकिन मैने बचने का प्रयास किया फिर उसी दिन से थोड़ा सुरुवात हुई तैरने की.
मेरे  पापाजी  ने  भी मुझे एक बार  बसंतपुर के रपटा (कच्ची  पूल ) में फेंका था  यहाँ पे  भी  मरने वाली  अनुभव हुई  पर  पापा  से  डरने  के कारण  नहीं  सिख  पाया , वैसे भी घर  में  तालाब जाना  नहीं होता  
तैरना  सिखने के बाद तालाब पार करने का कॉम्पिटिशन करने लगे.

धान की देखभाल- कभी कभी ममागाँव में हम अपने मजे के लिए धान की रखवाली  भी करने चले जाते थे दोपहर में इसी बहाने आम या कुछ बगीचे से भी मजे ले लेते।

गाय चराना - इंसान भी बड़ा अजीब प्राणी है, जो काम उसे मिलता है उसे उसमे मजा नहीं आता ,और जो नही मिलता  चाह रख बैठता है,हम जब मामागाँव जाते थे तब हम कई बार गाय चराने भी गए ,ऐसा नहीं है की कोई हमें काम देता था , हम भी दोस्तों के साथ जाते और वाही बचपन वाली फर्जी बातो में और चर्चाओ में लग जाते उसका भी अपना एक अलग मजा था शायद कोई और ना समझ पाये। 

बाईक की शुरुवात-  तैरने की तरह ही बाईक चलाने की मैं  बहुत कोशीश कर चूका था,पापाजी ने बहुत कोशिश की मुझे सीखाने की पर मैं सिख न पाया क्युकी पापा के गुस्सा और उनसे डरने  के कारन। पर कोई बात नहीं मेरे पास मामागांव था भई ,यहाँ मेरा दोस्त मनु था जो काफी कम उम्र से ट्रैक्टर चला लेता था 
वही मेरा गुरु बना.
एक बार हुआ यु की मनु, मै और दाऊ (मेरी मौसी का बेटा) जो की बहुत छोटा था बैठ के मलनी जा रहे थे,मनु 
के मन में पता नहीं क्या आया उसने मुझे बाइक चलने को दे दी,मैं डर रहा था ,अब मैं आगे,दाऊ बीच में और मनु पीछे उसने कहा डर मत मैं संभाल सकता हु ,फिर मैंने गाड़ी पहले से धीरे धीरे चौथे गेयर की आगे बढ़ ही रहे थे की रास्ते में मोड़ आ गया,मनु बोल ही रहा था गेयर कम् कर,  कम कर मुझसे हुआ नहीं मैंने सीधे मोड़ पे दे धड्ड अच्छा हुआ,की मोड़ पे रेत था शायद किसी के मकान का काम चल रहा होगा,हम यहाँ से उठे दाऊ से वादा करवाया की वो किसी को न बताये पर घर पहुँचते ही उसने इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बना दिया।

मैं  हार  मान  जाता  और  गाड़ी सिखने से बचने लग ता  पर मेरा दोस्त  मनु नहीं भूलता की उसे गाड़ी  सीखानी  है  मुझे  आखिर एक दिन  बगीचे में उसने  कहा  बस बहुत  हुआ अब गाड़ी तू  खुद ही संभाल  अकेले ,मैंने जैसे तैसे  गाड़ी  स्टार्ट  की  और चक्कर लगाने लगा  बगीचे  का  तभी  बीच में  मुझे अचानक रास्ता  कटा  हुआ  नजर  आता  है  मैं ने  बहुत मुस्किल से  गाड़ी  ककंट्रोल में कर ली  और शायद आज  मैं  बाईक  चलना सिख ही गया। 





कहानी मेरे बेटे बुजु की..

मैं और मेरा छोटा भाई रायपुर गए हुए थे। ट्रेन के माध्यम से  रायपुर से आते वक्त हम बिलासपुर में उतरे,भाई का कालेज जो बिलासपुर में था |और हमारे दिमाग में कुछ और चल रहा था, जिसकी वजह से मै भी बिलासपुर में उत्तर गया मुझे बचपन से ही बेजुबानो में  बहुत रूचि है जिसे लोग नफरत से जानवर बुलाते है शायद कुछ प्यार से भी.,बिलासपुर में पालतू पेट्स के कई दूकान है ,जिसमे से मैं  एक में भाई के साथ चले गया , चूँकि ये पूरा प्लान पहले से तय था भाई ने एक दुकान वाले से बात कर रखी थी,दुकान में प्रवेश करते ही लव बर्ड्स ने स्वागत किया,पग,डॉबरमेंन और बहुत से ब्रीड्स के दोस्त वहा थे पर मुझे  तो पामेरियन दोस्त ही चाहिए था क्युकी मै बचपन से ही उसे देखते आया था कभी फिल्मो में कभी लोगो को घूमाते  हुए ,भाई ने एक प्लास्टिक के डिब्बे की और इशारा किया मै ख़ुशी से उसे खोलने ही वाला था की दुकान के एक सेवक ने उसे खोल दिया खोलते ही दो पैरो के सहारे एक छोटा सा बुजु जी हाँ देखते ही नाम मिल गया था। मुझे मैंने पहले कभी इतना छोटा पाम नहीं देखा था,हमने दुकान वाले से वो डिब्बा लेकर बुजु के साथ बस के लिए निकल गए रस्ते में भाई ने बिर्रा जाने वाली लास्ट बस को देख लिया चुकी हम ऑटो  स्टैंड  पकड़ने के लिए जा रहे थे । पर भाई ने सूझबुझ से ऑटो वाले को रुकवाकर बस को भी  रुकवा लिया, जो की मेरे लिए संभव नहीं था,बस में मुझे और बुजु को बैठा कर भाई उतर गया कालेज के वजह से ,उस टाइम तो मै फ्री ही फ्री   था मेडिकल लाइन वालो को ज़िन्दगी लाइन बहुत देर से जो मिलती है,घर में सब को इतना ही पता था की  रायपुर गया है पर उन्हें
क्या पता,मैंने मम्मी को फ़ोन करके मेन दरवाजे के बाद वाले दरवाजे को खोलने के लिए कह दिया,बस घर के पास ही रूकती है बस से मैं सीधे ही घर पहुंचा ,डिब्बा  मम्मी को कुछ शक हुआ मैंने मम्मी को जैसे ही डिब्बा
खोल के दिखाया वो ककँपकँपी सी हंसी लेते हुए बोली मैंने  जब फ़ोन किया तो मुझे लगा ही था कुछ जरूर करके आ रहा है,अब मम्मी को पता तो चल गया अब मेरी बहन रानी जो ऊपर टीवी देख रही थी,उसको
सरप्राइज करना था,मैं जैसे ही डिब्बा लेकर ऊपर पहुंचा बहन बोलती है क्या है डिब्बे में वो उस वक्त तक सामान्य थी मम्मी बोलती है सफ़ेद रसगुल्ला, बुजु सफ़ेद जो था डिब्बा खोलने पर बहन का ख़ुशी का ठिकाना
नहीं था ,अब आते है पापा दुकान बंद करके रात को  अपना मेडिकल स्टोर जो है,अब बुजु को हमने ऊपर के ही कमरे में रखा था,पापा को उस कमरे में जाने के लिए बोलते है ,पापा देख थोड़ा गुस्सा वाले प्यार से बोलते है क्यों लाया ये बहुत छोटा है बुजु के आँख भी ढंग से खुले नहीं थे ,बुजु पापा के पैरो के साथ रेंगने लगा,फिर क्या मुझे २-३ महीने तक उसे अपने साथ कमरे में रखना पड़ता क्युकी रात को उसे कई बार भूख लग जाती थी
और वो अपना प्यारा सा आवाज लेकर कुं  कुं करता,इस तरह मुझे बुजु का मम्मी बनना पड़ा,पर मम्मी तो मम्मी ही बन सकती है भई बुजु मेरी मम्मी को अपना मानता है उन्ही के आगे पीछे घूमता रहता है,अब तो बुजु बड़ा हो
बुजु सेठ 
गया है २ साल हो गए बुजु सेठ को,,आज घर से बहुत दूर रहना पढता है पढाई के लिए पर बुजु की यादे आती रहती है बेटा जो है मेरा ।